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....ढ़िंग्चक ढ़िंग्चक पानी बरसा।

खोल दिया मेंढ़क टोली ने, हर गड्ढे़ में एक मदरसा।
ढ़िंग्चक ढ़िंग्चक पानी बरसा।

भाँति-भाँति के बादल नभ में, धमा चौकड़ी लगे मचाने।
खो-खो और कबड्डी जैसे, खेलों के खुल गए खजाने।
लगता हर बिजली का रेला, अट्टहास उनका निर्झर सा।
ढ़िंग्चक ढ़िंग्चक पानी बरसा।
पाकर वर्षा जल का प्यार मिट्टी में नव अंकुर फूटे।
दौड़ लगाते नदिया नाले, तालाबों के छक्के छूटे।

देख धरा पर हरियाली को, फिर कोई भी मोर न तरसा।
ढ़िंग्चक ढ़िंग्चक पानी बरसा।
दिशा-दिशा में हलचल उभरी, पुछी उड़े पतंगों जैसे।
पुरवाई के हंसमुख झोंके, लगते नई उमंगों जैसे।

इन्द्रधनुष के तन जाते ही, छवियों का अभिवादन सरसा।
ढ़िंग्चक ढ़िंग्चक पानी बरसा।

-जगदीश चन्द्र शर्मा-

14 टिप्पणियाँ:

Arvind Mishra said...

ढ़िंग्चक ढ़िंग्चक

समय चक्र said...

बार बार अपने गोल नयन खोले
बार बार अपना...वह मुंह खोले
बरसाती मेंढक राजा टर्र टर्र बोले

बहुत सुन्दर प्रस्तुति....

Kunnu said...

ढ़िंग्चक कविता।

रानीविशाल said...

वाह ! बड़ी मज़ेदार
नन्ही ब्लॉगर
अनुष्का

सत्येन्द्र बहादुर पाल said...

मजेदार कविता।

Unknown said...

Sundar rachna.

Unknown said...

Sundar rachna.

संतोष कुमार गुप्ता said...

ढ़िंग्चक कविता।

अनुष्का श्रीवास्तव said...

सुंदर कविता।

Udan Tashtari said...

ढ़िंग्चक ढ़िंग्चक रचना..

Coral said...

सच में ढ़िंग्चक ढ़िंग्चक कविता।

Chaitanyaa Sharma said...

अरे..... यह तो बड़ा मजेदार गीत है... मुझे भी बारिश बहुत पसंद है |

माधव( Madhav) said...

shandar

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

सुन्दर रचना है!
--
आपकी पोस्ट की चर्चा तो यहाँ भी है!
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http://mayankkhatima.blogspot.com/2010/09/18.html