खोल दिया मेंढ़क टोली ने, हर गड्ढे़ में एक मदरसा।
ढ़िंग्चक ढ़िंग्चक पानी बरसा।
भाँति-भाँति के बादल नभ में, धमा चौकड़ी लगे मचाने।
खो-खो और कबड्डी जैसे, खेलों के खुल गए खजाने।
लगता हर बिजली का रेला, अट्टहास उनका निर्झर सा।
पाकर वर्षा जल का प्यार मिट्टी में नव अंकुर फूटे।
दौड़ लगाते नदिया नाले, तालाबों के छक्के छूटे।
देख धरा पर हरियाली को, फिर कोई भी मोर न तरसा।
ढ़िंग्चक ढ़िंग्चक पानी बरसा।
दिशा-दिशा में हलचल उभरी, पुछी उड़े पतंगों जैसे।
पुरवाई के हंसमुख झोंके, लगते नई उमंगों जैसे।
इन्द्रधनुष के तन जाते ही, छवियों का अभिवादन सरसा।
ढ़िंग्चक ढ़िंग्चक पानी बरसा।
-जगदीश चन्द्र शर्मा-
14 टिप्पणियाँ:
ढ़िंग्चक ढ़िंग्चक
बार बार अपने गोल नयन खोले
बार बार अपना...वह मुंह खोले
बरसाती मेंढक राजा टर्र टर्र बोले
बहुत सुन्दर प्रस्तुति....
ढ़िंग्चक कविता।
वाह ! बड़ी मज़ेदार
नन्ही ब्लॉगर
अनुष्का
मजेदार कविता।
Sundar rachna.
Sundar rachna.
ढ़िंग्चक कविता।
सुंदर कविता।
ढ़िंग्चक ढ़िंग्चक रचना..
सच में ढ़िंग्चक ढ़िंग्चक कविता।
अरे..... यह तो बड़ा मजेदार गीत है... मुझे भी बारिश बहुत पसंद है |
shandar
सुन्दर रचना है!
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आपकी पोस्ट की चर्चा तो यहाँ भी है!
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http://mayankkhatima.blogspot.com/2010/09/18.html
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