काँप रही है थर-थर काकी
जैसे हिलें हवा में पत्ते
गर्मी को धकिया जाड़े ने
बंद कर दिया, तुम्हे पता है?
और न जाने कहाँ छुपाकर
चाबी को रख दिया पता है
ढूँढ़ रहे पगलाए सारे
उलट पुलट कर कपड़े-लत्ते!
घर से नहीं निकलने देती
करे ठाठ से धींगा मुश्ती
सूरज भी सहमा रहता है
लड़ता नहीं लपक कर कुश्ती
मेरी रेल ठीक होती तो
इसे छोड़ आता कलकत्ते।
दिन में हवा रात में पाला
कोहरा हटता नहीं हटाए
सारे रस्ते बंद पड़े हैं
गर्मी कहो कहाँ से आए
जला अंगीठी कोशिश करते
जुम्मन काका, चाचा फत्ते।
-कृष्ण शलभ
7 टिप्पणियाँ:
Ati sundar.
ये कविता भाषा,शिल्प,सहजता,सम्प्रेषण,रवानी, प्रभाव सभी लिहाज़ से बेहतरीन है.मैंने कभी किसी को कविता में नंबर नहीं दिया मगर आज कृष्ण शलभ जी को देता हूँ 10/10.
बच्चों के मन की बातों को बडी सहजता से चित्रित करती कविता। इसे कहते हैं सच्ची बाल कविता।
बडी मजेदार कविता है। अपना बचपना याद आ गया।
बहुत सुंदर कविता
बहुत ही सुन्दर भावमय करते शब्द ।
वाह!! वाह!! अति सुन्दर भावाभिव्यक्ति......। सद्भावी-डॉ० डंडा लखनवी
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