सुनो-सुनो ओ मच्छर जी।
हो तुम कितने निष्ठुर जी।
बातों-बातों में ही तुमने,
मारे डंक बहत्तर जी ।
नन्हे नाजुक लगते हो,
पर दिल के पूरे पत्थर जी।
पाठ पढे़ ना दया-धरम का,
हो तुम निपट निरक्षर जी ।
पढ़ने दो ना लिखने दो,
ना कहीं चैन से सोने दो।
करके रखा नाक में दम,
यह ठीक नहीं है मिस्टर जी।
कछुआ-वछुआ मार्टिन-आर्टिन,
सब उपाय बेकार हुए।
मच्छरदानी में भी आ जाते
हो, कितने मट्ठर जी ?
लेकिन एक बात पर अपनी,
अकल खा रही चक्कर जी।
क्या मिलता है तुम्हें खून में,
घुली हुई क्या शक्कर जी ?
7 टिप्पणियाँ:
गजब ढायो मच्छर जी, और गिरिजा जी, आपकी प्रस्तुति भी सुंदर लगी।
nice poem
गिरिजा जी, बहुत ही सुंदर कविता है।
गिरिजा जी कैसे लिखा मच्छर पुराण
हम तो रह गये दंग जी
बहुत बढिया। धन्यवाद।
इन मच्छर महाशय से कौन त्रस्त नहीं .....इतने सुन्दर और मज़ेदार ढंग से इनकी करनी खूब बखानी आपने ....आभार !
नन्ही ब्लॉगर
अनुष्का
मच्छर जी पर बड़ी सुंदर कविता लिखी आपने धन्यवाद
बहुत सुन्दर बाल कविता!
--
आपकी चर्चा तो हमने
बाल चर्चा मंच पर भी कर दी है!
http://mayankkhatima.blogspot.com/2010/10/25.html
Post a Comment