लगता है
-अश्वनी कुमार पाठक
लगता है उछलूँ पर्वत की चोटी पर चढ़ जाऊँ।
बादल बन चंदा संग खेलूँ लुक-छिप उसे छकाऊँ।
बूँदों में नाचूँ, पानी में भीगूँ और भिगाऊँ।
सागर की छाती पर दौड़ूँ लहरों में खो जाऊँ।
तितली बनकर उडूँ, फूल पर भौंरे सा मंडराऊँ।
चंचल-चपल गिलहरी बनकर, कुतर-कुतर फल खाऊँ।
मन करता है मेरा अंधे की आँखें बन जाऊँ।
रंग भरूँ जीवन में, सुंदर दुनिया उसे दिखाऊँ।
6 टिप्पणियाँ:
सुंदर बाल रचना
मन करता है मेरा अंधे की आँखें बन जाऊँ।
रंग भरूँ जीवन में, सुंदर दुनिया उसे दिखाऊँ।
सुन्दर भाव और सुन्दर कविता
बहुत प्यारा बाल-गीत...मन को भाया.
सुन्दर भाव लिए गीत उन्मुक्त उपकारी मन की उन्मुक्त उड़ान लिए .
सुन्दर रचना!
अंतिम दो पंक्तियों ने इस बाल गीत की दुगुनी शोभा बढ़ा दी है|
Post a Comment