जाड़ा बुरा है मेरे भाई
-प्रत्यूष गुलेरी
बूढ़ों पर सच आफत आई।
जाड़ा बुरा है मेरे भाई।।
मन लगता न आज कहीं है।
दुश्मन खाना बना दही है।
दाँत घड़ी से टिक टिक बजते।
आग मिले सुख साँसें भरते।
ठिठुर-ठिठुर दम टूट रहा है।
जाड़ा तन मन लूट रहा है।
धूप खिले तो दौड़े आएँ।
मुट्ठी भर तन को गरमाएँ।।



4 टिप्पणियाँ:
वाह! अच्छा लिखा है...
vaah bahut badhiya
जाड़े की शुरूआत ही कड़ाके की ठंड की याद दिलाती सुंदर कविता।
रचना तो बहुत अच्छी है मगर इस टेम्प्लेट में नीली पट्टी रचना के बीच में क्यों आ रही है?
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