Pages

Subscribe:

Ads 468x60px

test ad

...जाड़ा तन मन लूट रहा है।


 
जाड़ा बुरा है मेरे भाई
-प्रत्‍यूष गुलेरी

बूढ़ों पर सच आफत आई।
जाड़ा बुरा है मेरे भाई।।

मन लगता न आज कहीं है।
दुश्‍मन खाना बना दही है।

दाँत घड़ी से टिक टिक बजते।
आग मिले सुख साँसें भरते।

ठिठुर-ठिठुर दम टूट रहा है।
जाड़ा तन मन लूट रहा है।

धूप खिले तो दौड़े आएँ।
मुट्ठी भर तन को गरमाएँ।।

4 टिप्पणियाँ:

Shah Nawaz said...

वाह! अच्छा लिखा है...

Vandana Ramasingh said...

vaah bahut badhiya

रूनझुन said...

जाड़े की शुरूआत ही कड़ाके की ठंड की याद दिलाती सुंदर कविता।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

रचना तो बहुत अच्छी है मगर इस टेम्प्लेट में नीली पट्टी रचना के बीच में क्यों आ रही है?