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हरे पेड़ की छाँव


-राजकुमार जैन 'राजन'

प्यारी और दुलारी लगती, हरे पेड़ की छाँव।
इसको छोड़ कहीं जाने में, रूक जाते हैं पाँव।

कोयल बैठी, चिडिया बैठी, हमें सुनाती गाना।
जाने वाले राहगीर फिर, लौट यहीं पर आना।

इसी छाँव में खेल खेलते, खुश होते हैं बच्चे।
कभी न चाहो बुरा किसी का, सदा रहो तुम सच्चे।

आओ मिलकर नाचें-गायें, जैसे अपना गाँव।
माँ की ममता सी लगती है, हरे पेड़ की छाँव।।

1 टिप्पणियाँ:

admin said...

सबके मन को भाती है हरे पेड की छांव।

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S.B.A. TSALIIM.