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बस्ते का बोझ


मेरे इस भारी बस्ते को कर दे कोई कम।

बारह कॉपी, आठ किताबें, इसमें भरता हूँ।
फिर खाने का अपना डिब्बा, इसमें धरता हूँ।
वजन बढ़ाता कलर बॉक्स भी, खडिया, स्लेट, कलम।

मेरा एक बोझ बन जाता, विद्या का बस्ता।
गिर-गिर पड़ता, किसी तरह से कटता है रस्ता।
छिल-छिल जाता कंधा, लगता अब निकलेगा दम।

इस बस्ते से पीठ झुक गयी, टेढी कमर हुई।
सब कहते हैं, बच्चे होते कोमल छुई-मुई।
देख दशा, माता सरस्वती की आँखें हैं नम।

इधर ज्ञान है एक बोझ सा उधर फूल फूले।
रटो सभी इतिहास, उधर तितली झूला झूले।
महके महुआ, कोयल गाये, मोर करे छम-छम।

खेल-कूद कम हुआ हमारा केवल पढ़ना है।
यह बनना है, वह बनना है, आगे बढ़ना है।
कविता गई, कहानी छूटी, गीत गये, सरगम।

खेलें, पढ़ें, हँसे, मुसकाएं नाचें फूलों से।
घूमें, झूमें, करें काम कुछ सीखें भूलों से।
छीन रहा है खुशियाँ बस्ता बढ़ा रहा है गम।
-डा0 श्रीप्रसाद
A Hindi Children Poem (Bal Geet) by Dr. Shriprashad

1 टिप्पणियाँ:

admin said...

सचमुच बढता जा रहा है बस्ते का बोझ।

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S.B.A. TSALIIM.