होली तुमसे यही शिकायत
-उषा यादव
होली, तुमसे यही शिकायत, करते बच्चे हम।
इम्तहान के दिनों दौड़कर आती क्यों छम-छम?
मां कहतीं बस बहुत हो गया, अब रख दो पिचकारी।
यदि बुखार आ गया कहीं तो होगी मुश्किल भारी।
पर अपना मन रमे रंग में क्या ज्यादा, क्या कम,
इम्तहान के दिनों दौड़कर आती क्यों छम-छम?
गुब्बारे पानी वाले भी हमको बहुत लुभाएं।
सबके ऊपर उन्हें फेंक कर हम बच्चे हषाएं।
लेकिन नल के पास पहुँचते पड़े डांट क्या कम,
इम्तहान के दिनों दौड़कर आती क्यों छम-छम?
इम्तहान का भूत, पर्व का मजा बिगाड़े आधा।
और उधर ढ़ोलक की थापें, दें पढ़ने में बाधा।
खी-खी करके तुम हंसती हो, कुछ तो करो शरम,
इम्तहान के दिनों दौड़कर आती क्यों छम-छम?
किसने सीख तुम्हें दी गंदी, इन्हीं दिनों आने की?
हम बच्चों के मौज-मजे को फीका कर जाने की?
हल्ला्-गुल्ला , धूम-धड़ाका करे खूब फिर हम,
इम्तहान के दिनों दौड़कर आती क्यों छम-छम?
6 टिप्पणियाँ:
बहुत सुन्दर रचना!
बहुत ही मज़ेदार और सार्थक भी,,,,,,,,,,,, बेचारे बच्चे
ज्ञान के लिए चाहिए साधना और संयम और उसकी प्राप्ति के लिए चाहिए यम नियम.
जोकि यहाँ कम लोगों में है और नारियों में भी हरेक में नहीं है . होलिका और पुराणों के बारे में ऋषि दयानंद के विचार आज मार्गदर्शक हैं परन्तु हठ और दुराग्रह के कारण लोग नहीं मानते वरना हरे तो छोडो सूखे लक्कड़ कंडे भी कहीं न जलाये जा रहे होते , फ़ालतू की आग जलाकर वैश्विक ताप में वृद्धि क्यों की जा रही है ?
इस पर भी विचार आवश्यक है .
बढ़िया रचना है...
मस्त...मजेदार..यही चिंता रहती है बचपन में की होली के समय इम्तिहान हों अगर तो फिर मजा ज्यादे नहीं आएगा, लेकिन अगर इम्तिहान खत्म हो जाएँ होली के पहले तो फिर दिल एकदम खुश हो जाता है...:)
इम्तहान का भूत, पर्व का मजा बिगाड़े आधा।
और उधर ढ़ोलक की थापें, दें पढ़ने में बाधा।
खी-खी करके तुम हंसती हो,कुछतो करो शरम,
इम्तहानके दिनों दौड़कर आती क्यों छम-छम?.
बहुत प्यारी कविता....
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