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सबको फिरे जलाती, होकर पागल, खुद भी जले हवा।


कृष्‍ण शलभ
मेरी सुनती नहीं हवा, अपनी धुन में चले हवा।
बाबा इससे बात करो, ऐसे कैसे चले हवा।

जाड़े में हो जाती ठंडी, लाती कोट रजाई।
सॉंझ सवेरे मिल बजाती, दॉंतो की शहनाई।
सूरज के आकर जाने तक ही बस थोड़ा टले हवा।

अफलातून बनी आती है, अरे बार रे जून में।
ताव बड़ा खाती, ले आती, नाहक गर्मी खून में।
सबको फिरे जलाती, होकर पागल, खुद भी जले हवा।

जब जब हौले हौले चलती, लगती मुझे सहेली।
और कभी ऑंधी होकर, आ, धमके बनी पहेली।
मनमर्जी ना करे अगर तो, नहीं किसी को खले हवा।

11 टिप्पणियाँ:

Sunil Kumar said...

जब जब हौले हौले चलती, लगती मुझे सहेली।
और कभी ऑंधी होकर, आ, धमके बनी पहेली।
मनमर्जी ना करे अगर तो, नहीं किसी को खले हवा।
बहुत सुंदर बाल कविता कृष्ण शलभ जी को बधाई और आपका आभार

Kailash Sharma said...

बहुत रोचक और सुन्दर..

डॉ. मोनिका शर्मा said...

सुंदर कविता ....

Coral said...

बहुत सुन्दर

http://rimjhim2010.blogspot.com/

Chaitanyaa Sharma said...

खूब मजेदार कविता

रमेश कुमार जैन उर्फ़ निर्भीक said...

श्रीमान जी,क्या आप हिंदी से प्रेम करते हैं? तब एक बार जरुर आये. मैंने अपने अनुभवों के आधार आज सभी हिंदी ब्लॉगर भाई यह शपथ लेंहिंदी लिपि पर एक पोस्ट लिखी है.मुझे उम्मीद आप अपने सभी दोस्तों के साथ मेरे ब्लॉग एक बार जरुर आयेंगे. ऐसा मेरा विश्वास है

Kashvi Kaneri said...

बहुत सुन्दर और मजे़दार कविता है …….. धन्यवाद ।

Prakash Manu प्रकाश मनु said...

भाई कृष्ण शलभ की यह मन को छू लेने वाली और बड़ी ही सहज कविता है। पढ़कर अच्छा लगा। आपका ब्लाग सुंदर और यादगार रचनाओं का विपुल भंडार बने, मेरी शुभकामनाएँ। सस्नेह, प्र,म.

सुधाकल्प said...

बाल सुलभ कविताओं का भंडार देखकर बहुत खु्शी हुई ।ब्लाग अपनी खास पहचान रखता है ।
सुधा भार्गव

Anjana Dayal de Prewitt (Gudia) said...

जब जब हौले हौले चलती, लगती मुझे सहेली।
और कभी ऑंधी होकर, आ, धमके बनी पहेली।
मनमर्जी ना करे अगर तो, नहीं किसी को खले हवा।

bahut sunder!!! :-)

Richa P Madhwani said...

http;//shayaridays.blogspot.com