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कितना हरा भरा हूं मैं, कितना खिला खिला हूं मैं।

जंगल की पुकार

कितना हरा भरा हूं मैं ।
कितना खिला खिला हूं मैं।
मेरे अंदर इक संसार।
पक्षी उड़ते पंख पसार।

भांति- भांति के पशु यहां।
जड़ी बूटियां यहां वहां।
मेरे कारण वर्षा आए ।
राह बाढ़ की भी रुक जाए।

औषधि का मुझ में भंडार।
काग़ज़ लकड़ी का मैं द्वार।
इतना सब कुछ मैं देता हूं ।
फिर भी डर में ही जीता हूं ।

जाने कब ये मानव आएँ
पेड़ कटे, पंक्षी उड़ जाएँ।
पशु मेरे बेघर हो-हो कर ।
भटके यहाँ वहाँ रो-रो कर।

हे मानव ! मुझ को काटोगे।
वर्षा का सुख ले न सकोगे।
बाढ़ नहीं फिर रोक सकोगे।
स्वच्छ हवा को भी तरसोगे।
सुख से जीना है यदि बच्चो।
मुझ को भी सुख से जीने दो ।
-इस्मत ज़ैदी- 

10 टिप्पणियाँ:

समय चक्र said...

वाह पर्यावरण से जुडी बढ़िया रचना....आभार

Kunnu said...

Sachmuch badhiya rachna.

मनीष said...

Ati sundar.

ज़ैद said...

बहोत प्याली कविता है।

वन्दना अवस्थी दुबे said...

बच्चों में पर्यावरण के प्रति जागरूकता पैदा करती सुन्दर कविता है इस्मत.

औषधि का मुझ में भंडार।
काग़ज़ लकड़ी का मैं द्वार।
इतना सब कुछ मैं देता हूं ।
फिर भी डर में ही जीता हूं ।
एक ओर जहां जंगल से मिलने वाले लाभों को बताया गया है, वहीं दूसरी ओर जंगल का दुख भी बहुत सुन्दर शब्दों में व्यक्त किया है. रजनीश जी बधाई के पात्र हैं.

daanish said...

पर्यावरण के प्रति सचेत रहने का
अनमोल सन्देश देती हुई
सहज , सरल और सफल रचना ....
बधाई .

* મારી રચના * said...

sundar rachana.. badhai..

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' said...

सच कहा इस्मत साहिबा...
इन्सान के जीवन में पेड़ों के महत्व को बयान करती आपकी ये कविता सिर्फ़ बच्चे ही नहीं...
बड़ों के लिए भी बड़ा पैग़ाम दे रही है.

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सुन्दर पोस्ट!
--
इसकी चर्चा यहाँ भी है-
http://mayankkhatima.blogspot.com/2010/07/9.html

अपनीवाणी said...

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