कृष्ण शलभ
मेरी सुनती नहीं हवा, अपनी धुन में चले हवा।
बाबा इससे बात करो, ऐसे कैसे चले हवा।
जाड़े में हो जाती ठंडी, लाती कोट रजाई।
सॉंझ सवेरे मिल बजाती, दॉंतो की शहनाई।
सूरज के आकर जाने तक ही बस थोड़ा टले हवा।
अफलातून बनी आती है, अरे बार रे जून में।
ताव बड़ा खाती, ले आती, नाहक गर्मी खून में।
सबको फिरे जलाती, होकर पागल, खुद भी जले हवा।
जब जब हौले हौले चलती, लगती मुझे सहेली।
और कभी ऑंधी होकर, आ, धमके बनी पहेली।
मनमर्जी ना करे अगर तो, नहीं किसी को खले हवा।