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सबको फिरे जलाती, होकर पागल, खुद भी जले हवा।


कृष्‍ण शलभ
मेरी सुनती नहीं हवा, अपनी धुन में चले हवा।
बाबा इससे बात करो, ऐसे कैसे चले हवा।

जाड़े में हो जाती ठंडी, लाती कोट रजाई।
सॉंझ सवेरे मिल बजाती, दॉंतो की शहनाई।
सूरज के आकर जाने तक ही बस थोड़ा टले हवा।

अफलातून बनी आती है, अरे बार रे जून में।
ताव बड़ा खाती, ले आती, नाहक गर्मी खून में।
सबको फिरे जलाती, होकर पागल, खुद भी जले हवा।

जब जब हौले हौले चलती, लगती मुझे सहेली।
और कभी ऑंधी होकर, आ, धमके बनी पहेली।
मनमर्जी ना करे अगर तो, नहीं किसी को खले हवा।

इस पर ऑच न आने देंगे, देखो यह है कसम हमारी।

इस पर ऑंच न आने देंगे, देखो यह है कसम हमारी।
-कृष्ण शलभ

हम भारत माता के बेटे, अपना देश महान। 
इसकी धूल हमारी रोली, यह अपना अभिमान।

पहरा देता अडिग हिमालय, पावन नदियॉं यमुना-गंगा। 
लालकिले पर, फर-फर फहरे, देखो अपना अरे तिरंगा।

विजयी विश्वे तिरंगा प्याहरा, अपना पावन गान।
इसकी धूल हमारी रोली, यह अपना अभिमान।

प्रेम-प्यार से गूँजें इसमें, वाणी ईश्व र अल्ला की। 
काशी विश्वनाथ हर गंगे, शहनाई बिसमिल्ला की।

नानक, सूर, कबीर, जायसी की अपनी पहचान। 
इसकी धूल हमारी रोली, यह अपना अभिमान।

हम सब इसके फूल महकते, यह है हम सबकी फुलवारी। 
इस पर ऑंच न आने देंगे, देखो यह है कसम हमारी।

जग में उँचा नाम रहे, बस है इतना अरमान। 
इसकी धूल हमारी रोली, यह अपना अभिमान।

काँप रही है थर-थर काकी जैसे हिलें हवा में पत्ते

काँप रही है थर-थर काकी
जैसे हिलें हवा में पत्ते

गर्मी को धकिया जाड़े ने
बंद कर दिया, तुम्हे पता है?
और न जाने कहाँ छुपाकर
चाबी को रख दिया पता है
ढूँढ़ रहे पगलाए सारे
उलट पुलट कर कपड़े-लत्ते!

घर से नहीं निकलने देती
करे ठाठ से धींगा मुश्ती
सूरज भी सहमा रहता है
लड़ता नहीं लपक कर कुश्ती
मेरी रेल ठीक होती तो
इसे छोड़ आता कलकत्ते।

दिन में हवा रात में पाला
कोहरा हटता नहीं हटाए
सारे रस्ते बंद पड़े हैं
गर्मी कहो कहाँ से आए
जला अंगीठी कोशिश करते
जुम्मन काका, चाचा फत्ते।

-कृष्ण शलभ

हम धरती के फूल, हमीं हैं खुश्बू वाले झरने।


-कृष्ण शलभ-
हम धरती के फूल, हमीं हैं खुश्बू वाले झरने।

उड़े हवा के पंख लगा कर, कोई क्या उड़ पाए।
गुस्सा होती दादी अम्मा हमें देख हंस जाए।

बिना हमारे दादी माँ को घर भर लगे अखरने।
अम्मा की लोरी, बाबा की किस्सों भरी ‍िकताब।

चाचा नेहरू की अचकन के हम ही रहे गुलाब।
जहाँ–जहाँ हम जाएं भैया मस्ती लगे बिखरने।

सूरदास केहमीं कन्हैया हम तुलसी के राम।
वीर शिवा, बन्दा बैरागी सभी हमारे नाम।

हम कच्ची मिट्टी हैं जैसा चाहो लगे संवरने।

सुरज जी, तुम इतनी जल्‍दी क्‍यों आ जाते हो

छुटटी नहीं मनाते हो
-कृष्‍ण शलभ-

सुरज जी, तुम इतनी जल्‍दी क्‍यों आ जाते हो ?

लगता तुमको नींद न आती, और न कोई काम तुम्‍हें। 
जरा नहीं भाता क्‍या मेरा, बिस्‍तर पर आराम तुम्‍हें। 

खुद तो जल्‍दी उठते ही हो, मुझे उठाते हो। 
सुरज जी, तुम इतनी जल्‍दी क्‍यों आ जाते हो। 

कब सोते हो, कब उठते हो, कहॉं नहाते धाते हो?
तुम तैयार बताओ हमको, कैसे झटपट होते हो ?

लाते नहीं टिफिन, क्‍या खाना खाकर आते हो। 
सुरज जी, तुम इतनी जल्‍दी क्‍यों आ जाते हो। 

रविवार ऑफिस बंद रहता, मंगल को बाजार भी। 
कभी कभी छुटटी कर लेता, पापा का अखबार भी। 

ये क्‍या बात, तुम्‍हीं बस छुटटी नहीं मनाते हो।
सुरज जी, तुम इतनी जल्‍दी क्‍यों आ जाते हो ?
चित्र साभार-http://www.flickr.com/