- संभव शर्मा -
यह ठण्डी जब आती है।
हमको बहुत सताती है।
सूरज से पर डरती है,
देख उसे छुप जाती है।
हवा सहेली पक्की है,
उसके संग इठलाती है।
पानी के संग मिलकरके,
काट हमें वह खाती है।
देख खुली कमरे की खिड़की,
चुपके से घुस आती है।
माँ से उसकी बड़ी दुश्मनी,
कम्बल, टोप उढ़ाती है ।
12 टिप्पणियाँ:
मजेदार कविता।
Baal sulabh bhavnaon ki sundar abhivyakti.
देख खुली कमरे की खिड़की,
चुपके से घुस आती है..
अच्छी बॉल रचना ... मज़ा आ गया ..........
सहज बाल कविता !!
बेहद प्यारी सी कविता मन को भा गयी
regards
पढ़्कर ठंड लगने लगी.
अरे संभव, यहाँ भी, अपने ब्लाग पर क्यूँ नहीं डाली ये कविता.
बिल्कुल सही वक्त पर सही कविता. सचमुच ठंड बहुत सता रही है.
बहुत सुन्दर बाल रचना है। संभव जी को बधाई
बहुत सुन्दर बाल रचना है। संभव जी को बधाई
आप लिखते हैं तो लगता है इस उम्र में भी आपने अपने बचपन को खूब अच्छे से बचा रखा है
कविता पढ़ कर बहुत शुखद अनुभव हुआ आप का साथ रहना जरूरी है वरना हमारे अन्दर का बचपन तो मिटने लगा है
उम्दा बालकविता
Post a Comment