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नटखट हम हाँ नटखट हम

नटखट हम हाँ नटखट हम, करने निकले खटपट हम।

आ गए लड़के पा गए हम, बंदर देख लुभा गए हम।

बंदर को बिचकाएँ हम, बंदर दौड़ा भागे हम।

बच गए लड़के, बच गये हम, नटखट हम हाँ नटखट हम।



बर्र का छत्ता पा गए हम, बांस उठाकर आ गए हम।

छत्ते लगे गिराने हम, ऊधम लगे मचाने हम।

छत्ता टूटा बर्र उड़े, आ लड़कों पर टूट पड़े।

झटपट हटकर छिप गए हम, बच गए लड़के बच गए हम।



बिच्छू एक पकड़ लाए, उसे छिपाकर ले आए।

सबक जाँचने भिड़े गुरू, हमने नाटक किया शुरू।

खोला बिच्छु चुपके से, बैठे पीछे दुबके से।

बचे गुरूजी खिसके हम, पिट गए लड़के बच गए हम।



बुढिया निकली पहुँचे हम, लगे चिढ़ाने जम जम जम।

बुढिया खीजे डरे न हम, ऊधम करना करें न कम।

बुढिया आई नाकों दम, लगी पीटने धम धम धम।

जान बचाकर भागे हम, पिट गए लड़के, बच गए हम।


-स्वर्ण सहोदर (1902-1980)

4 टिप्पणियाँ:

admin said...

स्वर्ण सहोदर जी की यह कविता लगभग पिछले पचास सालों का बच्चों का मनोरंजन कर रही है।

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S.B.A. TSALIIM.

Himanshu Pandey said...

बाल मन का यह मंच बाल-साहित्य के लिये अत्यन्त उल्लेखनीय है । स्वर्ण सहोदर जी की इस रचना के लिये आभार ।

डॉ. मनोज मिश्र said...

बहुत सुंदर .

Anonymous said...

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