-राधेश्याम प्रगल्भ-
धरती माँग रही है पानी, बादल बरसो।
फूटे अंकुर मिले जवानी, बादल बरसो।
पहनेगी यह चूनर धानी, बादल बरसो।
बहल जाएगी गुडिया रानी, बादल बरसो।
भीगेंगे हम सब फुहार में, बादल बरसो।
रंग आ जाएगा बहार में, बादल बरसो।
गाएगा कोई मल्हार में, बादल बरसो।
रोगी मुस्कान बुखार में, बादल बरसो।
फूलों पर मुस्कान खिलेगी, बादल बरसो।
बच्चों की टोली किलकेगी, बादल बरसो।
गली गली धारा मचलेगी, बादल बरसो।
कागज की नौका तैरेगी, बादल बरसो।
देख रहे हम कब से राहें, देखो, बरसो।
खड़े हुए फैलाए बाँहें, देखो, बरसो।
पूरी होंगी अनगिन चाहें, देखो, बरसो।
तुम पर हसरत भरी निगाहें, देखो, बरसो।
5 टिप्पणियाँ:
अतिसुन्दर रचना .............प्रकृति प्रेम को दर्शाती हुई....मनभावन
सुन्दर रचना..आभार प्रस्तुति का.
-बस, इसे बाल गीत कहना कुछ उचित प्रतीत नहीं होता शाब्द संचयन के आधार पर. शायद मेरी समझ गलत हो.
आज के हालात में जन जन को ये गीत गाना चाहिए...बारिश का बेसब्री से इंतज़ार है ...
नीरज
बहुत सुन्दर रचना प्रस्तुत की है।बधाई।
प्राकृति के रंगों को बयान करती......... सुन्दर रचना....... और फिर बरखा की चाहत से भरी........क्या बात है
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