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अगर-मगर


-निरंकार देव सेवक

अगर-मगर दो भाई थे, लड़ते खूब लड़ाई थे।

अगर मगर से छोटा था, मगर मगर से खोटा था।
अगर अगर कुछ कहता था, मगर नहीं चुप रहता था।

बोल बीच में पड़ता था, और अगर से लड़ता था।
अगर एक दिन झल्लाया, गुस्से में भरकर आया।

और मगर पर टूट पड़ा, हुई खूब गुत्थमगुत्था।
छिड़ी महाभारत मारी, गिरी मेज-कुर्सी सारी।

माँ यह सुनकर घबराईं, बेलन ले बाहर आईं।
दोनों के दो-दो जड़कर, अलग दिए कर अगर-मगर।

खबरदार जो कभी लड़े, बंद करो ये सब झगड़े।
एक और ओर था अगर अड़, मगर दूसरी ओर खड़ा।

1 टिप्पणियाँ:

Sujit Kumar said...

This poem i had read in my childhood in baalhans... or Nandan.. dont remeber but very nice..