-रामधारी सिंह 'दिनकर'-
हठ कर बैठा चाँद एक दिन, माता से यह बोला,
सिलवा दो माँ मुझे ऊन का मोटा एक झिंगोला।
सन सन चलती हवा रात भर, जाड़े से मरता हूँ,
ठिठुर ठिठुर कर किसी तरह यात्रा पूरी करता हूँ।
आसमान का सफर और यह मौसम है जाड़े का,
न हो अगर तो ला दो कुर्ता ही कोई भाड़े का।
बच्चे की सुन बात कहा माता ने- अरे सलोने,
कुशल करें भगवान, लगें मत तुझको जादू-टोने।
जाड़े की तो बात ठीक है, पर मैं तो डरती हूँ,
एक नाप में कभी नहीं तुझको देखा करती हूँ।
कभी एक अंगुल भर चौड़ा, कभी एक फुट मोटा,
बड़ा किसी दिन हो जाता है और किसी दिन छोटा।
घटता बढ़ता रोज किसी दिन ऐसा भी करता है,
नहीं किसी की भी आँखों को दिखलाई पड़ता है।
अब तू ही ये बता, नाप तेरा किस रोज लिवाएँ,
सी दें एक झिंगोला जो हर रोज बदन में आए?
3 टिप्पणियाँ:
वाह, बहुत सुन्दर कविता पढ़वाई।
घुघूती बासूती
बहुत आभार इस प्रस्तुति का.
अच्छी कविता है।
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SBAI TSALIIM
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