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देल छे आए



बाबा आज देल छे आए,

चिज्‍जी-पिज्‍जी कुछ न लाए।


बाबा, क्‍यों नहीं चिज्‍जी लाए,

इतनी देली छे  क्‍यों आए ?


कॉं है मेला बला खिलौना,

कलाकंद लडडू का दोना।


चूँ चूँ गाने वाले चिलिया,

चीं चीं करने वाली गुलिया।


चावल खाने वाली चुइया,

चुनिया, मुनिया, मुन्‍ना भइया।


मेला मुन्‍ना, मेली मेली गइया,

काँ मेले मुन्‍ना की मइया ?


बाबा तुम औ कॉं से आए,

ऑं-ऑं चिज्‍जी क्‍यों ना लाए?

-श्रीधर पाठक

(रचनाकाल 1906)

4 टिप्पणियाँ:

Anil Kumar said...

तोतली भाषा में लिखी यह कविता इतनी पुरानी होकर भी बिलकुल नवीन लगती है। श्रीधर पाठक का नाम पहली बार सुना, इनके बारे में और जानने की जिज्ञासा है। धन्यवाद!

डॉ. मनोज मिश्र said...

nayee tarah kee totlee mithas liye achchhee rachna.

Vinay said...

हुं ज़बान में एठन आ गयी

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तख़लीक़-ए-नज़रचाँद, बादल और शामगुलाबी कोंपलेंतकनीक दृष्टा

admin said...

100 साल बाद भी सार्थक।

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S.B.A. TSALIIM.