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क्‍यों पसंद हैं हरदम तुमको फूलों के ही साये?

 
क्‍यों पसंद हैं हरदम तुमको फूलों के ही साये ? 
अश्‍वनी कुमार पाठक 

क्‍यों पसंद हैं हरदम तुमको फूलों के ही साये ? 
किस अलबेले चित्रकार से, तुमने पंख रंगाये ? 

क्‍यों कहते हैं बच्‍चे तुमको, तितली, तितली रानी? 
क्‍यों लगती तुम उनको इतनी, प्‍यारी और सुहानी? 

तुम्‍हें देखकर मुन्‍ना-मुन्‍नी, नन्‍हें हाथ बढ़ाते। 
 पंख तुम्‍हारे चुटकी में, आते-आते रह जाते। 

तुम फूलों पर बैठ-बैठ कर, मीठा रस पीती हो। 
 भौरों से बतियाती रहती, मस्‍ती में जीती हो।

...मानो चली छानकर भंग।

पतंग
-अश्‍वनी कुमार पाठक

नीली-पीली, लाल पतंग, उड़ती है बादल के संग।
नभ में मस्‍ती से लहराती, मानो चली छानकर भंग।

नीचे आती, गुटके खाकर, उठ जाती है, फिर सन्‍नाकर।
दाएँ-बाएँ शीश झुकाकर, ढील मिली चढ़ जाती चंग।

मोनू-सानू जल्‍दी आओ, सद्दी में मंझा लगवाओ।
चरखी में चढ़वा लो धागा, आज पतंगों की है जंग।

नीचे के काने में पुच्‍छी, और बीच में हो गलमुच्‍छी।
इससे सीखो ऊँचा उठना, इसके बड़े निराले ढंग।।

बूँदों में नाचूँ, पानी में भीगूँ और भिगाऊँ।

लगता है
-अश्‍वनी कुमार पाठक

लगता है उछलूँ पर्वत की चोटी पर चढ़ जाऊँ।
बादल बन चंदा संग खेलूँ लुक-छिप उसे छकाऊँ।

बूँदों में नाचूँ, पानी में भीगूँ और भिगाऊँ।
सागर की छाती पर दौड़ूँ लहरों में खो जाऊँ।

तितली बनकर उडूँ, फूल पर भौंरे सा मंडराऊँ।
चंचल-चपल गिलहरी बनकर, कुतर-कुतर फल खाऊँ।

मन करता है मेरा अंधे की आँखें बन जाऊँ।
रंग भरूँ जीवन में, सुंदर दुनिया उसे दिखाऊँ।

...करते रहते ता-ता धिन्‍ना।

छोटा होना बहुत बुरा है
-अश्‍वनी कुमार पाठक

भैया कहता मुझको पिन्‍ना। 
दीदी कहती कितना घिन्‍ना।

साथी मुझे बनाते घोड़ा, और लगाते कसकर कोड़ा।
क‍हते कितना मरियल-अडि़यल, सरपट चलता नहीं निगोड़ा।
गोलू, भोलू सदा पीठ पर, करते रहते ता-ता धिन्‍ना।

मुझको कहते सभी अनाड़ी, खुद को मानें मँजा खिलाड़ी।
खतरे से हो जहाँ खेलना, कर देते हैं मुझे अगाड़ी।
ढ़ोल बजाते ढम ढम ढम ढम, टमकी बोले तड़-तड़ दिन्‍ना।

सबकी नजरों का मैं काँटा, खाता रहता दिन भर चाँटा।
 छोटा होना बहुत बुरा है, कभी किसी ने दर्द न बाँटा।
 तंग बहुत करते हैं मुझको, छोटू-मोटू, बिन्‍नी-बिन्‍ना।

 भैया कहता मुझको पिन्‍ना। 
दीदी कहती कितना घिन्‍ना।