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अब नहीं मैं दूध पीता एक बच्‍चा...

 
माँ समझती क्यों नहीं है?
- रमेश तैलंग 

अब नहीं मैं दूध पीता एक बच्चा 
माँ समझती क्यों नहीं है?
 
 
चाहता हूं, मैं बिताऊं वक्त ज्यादा 
दोस्तों के बीच जा कर,
चाहता हूं, मैं रखूँ दो-चार बातें 
सिर्फ अपने तक  छुपाकर,
 
पर मेरे आगे से डर की श्याम छाया
दूर हटती क्यों नहीं है ?
 
छोड़ आया हूं कभी का बचपना, जो
सिर्फ जिद्दी, मनचला था,
हो गया है अब बड़ा सपना कभी जो
थाम कर उंगली चला था,
 
पर बड़ों की टोका-टोकी वाली आदत 
क्यों, बदलती क्यों नहीं है?

8 टिप्पणियाँ:

रुनझुन said...

थैंक्यू अंकल! हम बच्चों के मन को आप बहुत अच्छे से समझते है... अभी "नंदन" पत्रिका के दिसंबर 2011 अंक में मैंने क्रिसमस पर लिखी आपकी कविता "संत आया है" पढ़ी, मुझे बहुत अच्छी लगी..

Pallavi saxena said...

sundar rachna ...http://mhare-anubhav.blogspot.com/

Vijay Sharma said...

Sundar Kavita.

विभूति" said...

खुबसूरत अल्फाजों में पिरोये जज़्बात....शानदार |

Anonymous said...

majedar kavita
animesh

virendra sharma said...

विकसते मन के सहज भाव पिरोये है यह रचना .बधाई इस शानदार प्रस्तुति के लिए .

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

माँ के लिए तो उसकी औलाद बच्चा ही रहती है!

रमेश तैलंग said...

सभी सहृदय सुविग्यों का हार्दिक आभार जिन्होंने इस बाल कविता को पसंद किया और अपनी प्रतिक्रियाओं से मुझे उपकृत किया. -रमेश तैलंग