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अब नहीं मैं दूध पीता एक बच्‍चा...

 
माँ समझती क्यों नहीं है?
- रमेश तैलंग 

अब नहीं मैं दूध पीता एक बच्चा 
माँ समझती क्यों नहीं है?
 
 
चाहता हूं, मैं बिताऊं वक्त ज्यादा 
दोस्तों के बीच जा कर,
चाहता हूं, मैं रखूँ दो-चार बातें 
सिर्फ अपने तक  छुपाकर,
 
पर मेरे आगे से डर की श्याम छाया
दूर हटती क्यों नहीं है ?
 
छोड़ आया हूं कभी का बचपना, जो
सिर्फ जिद्दी, मनचला था,
हो गया है अब बड़ा सपना कभी जो
थाम कर उंगली चला था,
 
पर बड़ों की टोका-टोकी वाली आदत 
क्यों, बदलती क्यों नहीं है?

बादल जी, बोलो क्‍या तुम भी पढ़ने जाया करते हो?

बादल जी, बोलो क्‍या तुम भी पढ़ने जाया करते हो?
या फिर केवल गड़-गड़-गड़ शोर मचाया करते हो? ?

सुबह-सुबह मुझको तो मेरी मम्‍मी रोज जगा देती,
अलसाई आँखों से मीठे सपने दूर भगा देती,

देर हुई विद्यालय मे तो टीचर अलग सजा देती,
कहो, किसी से सजा कभी क्‍या तुम भी पाया करते हो?

सुनते हैं तुमको ऊपर से सारी दुनिया दिखती है,
बोलो, क्‍या सचमुच ऊपर से प्‍यारी दुनिया दिखती है?

फूलों जैसी सुंदर राजकुमारी दुनिया दिखती है ?
जिसपर तुम अपने आँचल की ठण्‍डी छाया करते हो?
नील गगन में रहते हो तुम तो हो जाते सैलानी,
प्‍यारी धरती के होठों को छूकर हो जाते पानी,

 कभी-कभी तो तुम्‍हें देखकर होने लगती हैरानी,
 इन्‍द्रधनुष के रंग किस तरह तुम बिखराया करते हो?

अले, छुबह हो गई।

 अले, छुबह हो गई, आँगन बुहाल लूं,
मम्मी के कमले की तीदें थमाल लूँ।

कपले ये धूल भले, मैले हैं यहाँ।
ताय भी बनाना है, पानी भी लाना है।

पप्पू की छर्ट फटी, दो ताँके दाल लूं।

कलना है दूध गलम, फिर लाऊं तोस्त नलम।
झट छे इछतोब जला, बलतन फिल एक चढ़ा।

कल के ये पले हुए आलू उबाल लूँ।

आ गया ‘पलाग’ नया, काम छभी भूल गया।
जल्दी में क्या कल लूँ, चुपके से अब भग लूँ।

छंपादक दादा के नए हाल-चाल लूँ।