रोटी का पेड़
-निरंकार देव सेवक
रोटी अगर पेड़ पर लगती,
तोड़-तोड़ कर खाते।
तो पापा क्यों गेहूँ लाते,
और उन्हें पिसवाते।
रोज सवेरे उठकर हम,
रोटी का पेड़ हिलाते।
रोटी गिरतीं टप टप टप टप,
उठा उठा कर खाते।
हिन्दी बालसाहित्य (बालसाहित्यकारों) का साझा मंच।
8 टिप्पणियाँ:
बहुत सुन्दर , सार्थक रचना , सार्थक तथा प्रभावी भावाभिव्यक्ति , ब धाई
बाल गीत लिखने के लिए बाल मन होना चाहिए। बहुत बढ़िया।
रजनीश अंकल, रोटी के पेड़ का सपना तो मैं भी अक्सर देखा करती हूँ, लेकिन आपने इतनी सुन्दर कविता लिखी है कि लगता है मानो मेरा सपना सच हो गया...थैंक्यू अंकल!!!
रोटी अगर पेड पर लगतीं तो वास्तव में कितना अच्छा होता...बहुत सुन्दर बाल गीत..
bal geeton ko padhne ka apna hi anand hai..aapka yah prayas atyant sarthak hai
सहज सरल सुबोध बाल मन की बात .रोटी का पेड़ .जब सब्जी का हो सकता है तो रोटी का क्यों नहीं ?
वाह भाई तब तो साडी समस्या ही हल हो जाती ....
बहुत बढ़िया शिशु गीत
बहुत सुन्दर , सार्थक रचना
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