छुटटी नहीं मनाते हो
-कृष्ण शलभ-
सुरज जी, तुम इतनी जल्दी क्यों आ जाते हो ?
लगता तुमको नींद न आती, और न कोई काम तुम्हें।
जरा नहीं भाता क्या मेरा, बिस्तर पर आराम तुम्हें।
खुद तो जल्दी उठते ही हो, मुझे उठाते हो।
सुरज जी, तुम इतनी जल्दी क्यों आ जाते हो।
कब सोते हो, कब उठते हो, कहॉं नहाते धाते हो?
तुम तैयार बताओ हमको, कैसे झटपट होते हो ?
लाते नहीं टिफिन, क्या खाना खाकर आते हो।
सुरज जी, तुम इतनी जल्दी क्यों आ जाते हो।
रविवार ऑफिस बंद रहता, मंगल को बाजार भी।
कभी कभी छुटटी कर लेता, पापा का अखबार भी।
ये क्या बात, तुम्हीं बस छुटटी नहीं मनाते हो।
सुरज जी, तुम इतनी जल्दी क्यों आ जाते हो ?
चित्र साभार-http://www.flickr.com/
5 टिप्पणियाँ:
रविवार ऑफिस बंद रहता, मंगल को बाजार भी।
कभी कभी छुटटी कर लेता, पापा का अखबार भी।
बंहुत ही खूबसूरती से व्यक्त करती बालमन की जिज्ञासा बधाई।
वाह . मासूम शिकायत है सूरज से....... सुंदर बॉल रचना
लगता तुमको नींद न आती, और न कोई काम तुम्हें।
जरा नहीं भाता क्या मेरा, बिस्तर पर आराम तुम्हें।
प्यारी सी कविता बच्चो के साथ साथ सूरज से हमारी भी यही शिकायत है....
regards
अति सुंदर कविता।
bahut hi badhiya hai..... TASLIM BHAI
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