बुलबुल के बच्चे
-गिरिजा कुलश्रेष्ठ
बुलबुल के थे अण्डे तीन।
उनसे निकले बच्चे तीन।
माँ उनको नादान समझती,
लेकिन वे हैं बड़े जहीन।
कल तक देख नहीं पाते थे,
चीं चीं चीं चीं चिचियाते थे।
लेकिन आज इरादे उनके,
उड़ जाएं लंका या चीन।
लगने लगा घोंसला छोटा,
दाने दुनके का भी टोटा।
चोंच खोल चिल्लाते रहते,
खाने के बेहद शौकीन।
जब कोई भी आहट आती,
गर्दन तान फुलाते छाती।
चुप रहना या पीछे हटना,
लगे उन्हें अपनी तौहीन।
13 टिप्पणियाँ:
माँ उनको समझे नादान लेकिन वे हैँ बड़े जहीन। बहुत खूबसूरत रचना।सच यही है कि माता-पिता अपने बच्चोँ को हमेशा अनाड़ी ही समझते हैँ चाहे वे कितने ही बुद्धिमान क्योँ न होँ।
सुन्दर...वाह!
बहुत बढ़िया...
प्यारी कविता
सुंदर गीत!
सुन्दर गीत!
बहुत ही प्यारा सा गीत है... कुछ दिनों पहले मेरे घर में गौरैया का एक घोसला था... इस कविता को पढकर मुझे उसके बच्चे याद आ गए... ऐसा लगा जैसे उनके लिए ही लिखी गयी है ये कविता...बहुत-बहुत धन्यवाद!!!
पहले तो में आप से माफ़ी चाहता हु की में आप के ब्लॉग पे बहुत देरी से पंहुचा हु क्यूँ की कोई महताव्पूर्ण कार्य की वजह से आने में देरी हो गई
आप मेरे ब्लॉग पे आये जिसका मुझे हर वक़त इंतजार भी रहता है उस के लिए आपका में बहुत बहुत आभारी हु क्यूँ की आप भाई बंधुओ के वजह से मुझे भी असा लगता है की में भी कुछ लिख सकता हु
बात रही आपके पोस्ट की जिनके बारे में कहना ही मेरे बस की बात नहीं है क्यूँ की आप तो लेखन में मेरे से बहुत आगे है जिनका में शब्दों में बयां करना मेरे बस की बात नहीं है
बस आप से में असा करता हु की आप असे ही मेरे उत्साह करते रहेंगे
वाह ....बहुत प्यारी रचना
अण्डों से विकसते बच्चों के विकास की सुन्दर दास्ताँ .बाल मन को दुलारती बहलाती श्रेष्ठ कविता .
जाकिर जी नमस्कार सुन्दर बाल कविता। मेरे ब्लाग पर आपका स्वागत है।
बेहद सुन्दर बाल मन को स्पर्श करती रचना ..
बहुत शानदार रचना ....शुक्रिया शेयर करने के लिए
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